✒ बख्तावर अदब
शहरे मदीना के एक ओर ऊंचा पहाड़ था, जहां से मकानों का सिलसिला शुरू होता था। दूसरी ओर खेत, बाग और पेंचदार तंग गलियां थी। आमतौर पर इस ओर से लोगों की आवाजाही कम ही होती थी। लश्करे कुरैश का भी यहां से मदीने में दाखिल होना आसान नहीं था। इस हिस्से में खजूर के ऊंचे-ऊंचे दरख्त भी थे जिस पर चढ़कर मुसलमान तीरंदाज आसानी से दुश्मनों पर तीरंदाजी कर उनका रास्ता रोक सकते थे। ऐसे में लश्करे कुरैश के उत्तरी इलाके में स्थित शैखेन किले से कबा वादी के बीच कहीं से मदीना में दाखिल होने की गुंजाईश ज्यादा थी। लेहाजा तय हुआ कि खंदक शैखेन किले से कबा वादी तक खोदी जाए।
वह सर्दी का मौसम था और कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी।
आप (स.अ.व.) ने खंदक की खुदाई के लिए दस-दस लोगों का गिरोह बनाकर हर गिरोह को लगभग 20 मीटर खुदाई करने की जिम्मेदारी दी। शैखेन किले से कबा वादी तक लगभग छह किलोमीटर लंबी, तीन मीटर गहरी और लगभग ढाई मीटर चौड़ी खंदक जिसकी दीवारें सपाट और सीधी थी, खोदी जाने लगी। मुसलमानों के पास दस से बारह दिन ही थे। जैसी इत्तेला थी, उस हिसाब से लश्करे कुरैश इतने दिनों में मदीना पहुंच जाता। ऐसे में लश्करे कुरैश के वहां पहुंचने से पहले न सिर्फ उन्हें खंदक की खुदाई मुकम्मल कर लेनी थी बल्कि लश्करे कुरैश का सामना करने के लिए उन्हें खुद को ताजादम भी बनाए रखना था। लेहाजा आम मुसलमानों के साथ हजरत अबु बक्र और हजरत उमर बिन खत्ताब (रदि.) और यहां तक कि खुद पैगंबरे इस्लाम (स.अ.व.) भी कुदाल चला रहे थे और खुदाई से निकली मिट्टी अपने दामन में भर-भरकर खंदक के किनारे फसील की शक्ल में ढेर करते जा रहे थे। खुदाई का काम सुबह से देर रात तक जारी रहता। इस दौरान कुछ लोग पहरा देते और कुछ जंगी तराने गाते ताकि खुदाई करने वालों का हौसला बना रहे। जंगी तराना गाने वालों में 12 साल का अम्मारा हज्म भी था जो बड़ी दिलकश आवाज में जंगी तराने गाता। जब वह राग अलापता तो खुदाई करने और पहरा देने वालों में नया जोश भर जाता। आप (स.अ.व.) उसकी दिलकश आवाज से इतने मुतास्सिर थे कि अक्सर वे उसे ऐसी जगह ले जाते, जहां कुदाल चलाते, मिट्टी ढोते या पहरा देते लोगों में थोड़ी भी सुस्ती या बेचैनी दिखाई देती। खंदक खोदने के लिए जरूरी सामान बनू कुरैजा से मांग कर लाया गया था जो पर्याप्त नहीं था। तो भी खुदाई का काम जारी रहा। इस काम में औरतें भी बेहतरीन किरदार अदा कर रही थीं। हजरत रकीदा घायलों की मरहम पट्टी कर रही थीं। कुछ खाना बनाने और पहरा देने का काम अंजाम दे रही थीं तो कुछ इस मुश्किल घड़ी में अपनी दिलेरी का सबूत भी दे रही थीं। ऐसा ही एक सबूत हजरत सफिया (पैगंबरे इस्लाम की फूफी) ने औरतों के कैंप के पास एक यहूदी को चक्कर लगाता देख, उसका सिर काटकर दिया था। सारा काम आसानी से पाए तकमील को पहुंच रहा था कि एक रात एक मुश्किल आ खड़ी हुई।
खुदाई के दौरान हजरत सलमान फारसी, बनू हजीफा और हजरत नोमान के अलावा तीन और सहाबी (साथी) के सामने एक बड़ा पत्थर आ गया, जिसने मुसलमानों को पशोपेश में डाल दिया। पत्थर तोड़ने की कई कोशिश की गई लेकिन कामयाबी नहीं मिली। खबर सुनकर आप (स.अ.व.) मौके पर पहुंचे। खंदक का आयडिया चूंकि हजरत सलमान फारसी का था इसलिए सबकी नजरें उन्हीं पर टिकी थीं। गोया पूछना चाह रहे थे कि अब क्या किया जाए।
पैगंबरे इस्लाम (स.अ.व.) को देखकर आपने तजवीज पेश की। कहा-‘पत्थर काफी बड़ा है और गहराई तक धंसा हुआ है। मेरी राय में हमें खंदक का रूख मोड़ देना चाहिए।’
‘ये तजवीज मुनासिब नहीं होगी।’ किसी ने कहा-‘हमारे साथी थकन से बुरी तरह निढाल हो चुके हैं। खंदक का रूख मोड़ने में काफी वक्त लगेगा जो हमारे पास नहीं है।’
वहां मौजूद दूसरे मुसलमानों ने भी अपनी-अपनी राय पेश की। लेकिन देर तक वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके। जबकि एक-एक लम्हा उनके लिए कीमती था। आप (स.अ.व.) कुछ देर तक लोगों से राय-शुमारी करते रहे। फिर खंदक में उतरकर पत्थर का मुआयना करने लगे। पत्थर वाकई काफी बड़ा और नीचे तक धंसा हुआ था। उसे निकालने के लिए काफी गहराई तक खुदाई करनी पड़ती जिसकी गुंजाईश नहीं थी। इसकी बजाए उसे तोड़ देना ज्यादा मुनासिब था। आप (स.अ.व.) ने कुछ देर तक पत्थर का मुआयना करने के बाद कहा-‘मुो कुदाल दो, जरा मैं भी जोर-आजमाईश कर लूं।’
कुदाल हाथ में लेक आप (स.अ.व.) ने एक मुनासिब जगह देखकर पत्थर पर ऐसी चोट मारी कि पहली ही जर्फ से न सिर्फ पत्थर में शिगाफ (दरार) पैदा हो गया बल्कि उसमें से एक अजीब सी रोशनी निकली जिसे देखकर वहां मौजूद लोगोें में दहशत तारी हो गई और उनके लबों से बेसाख्ता ‘अल्लाहो अकबर’ का नारा बुलंद हो गया। आप (स.अ.व.) ने पत्थर पर दूसरी बार चोट की। इस बार दरार और चौड़ी हो गई और वहां से फिर वही रोशनी निकली। आप (स.अ.व.) ने पत्थर पर तीसरी जर्फ मारी। इस बार पत्थर टुकड़े-टुकड़े हो गया और दरार से फिर वही रोशनी निकली। लोगों ने फिर ‘अल्लाहो अकबर’ का नारा बुलंद किया। आप (स.अ.व.) खंदक से बाहर निकले। आपका चेहरा जोश व मसर्रत से चमक रहा था। खंदक खोदने से निढाल हो चुके लोग भी खुशी से ाूम उठे थे और ‘अल्लाहो अकबर’ का नारा बुलंद कर रहे थे। किसी ने आप (स.अ.व.) से पूछा-‘पत्थर में जब-जब शिगाफ पड़ा, उसमें से एक अजीब सी रोशनी फूट रही थी, वो क्या थी।’
आप (स.अ.व.) ने कहा-‘वो रोशनी जिब्रील (अलैहिस्सलाम) की आमद की थी। तीनों बार जिब्रील (अलैहिस्सलाम) यहां आए थे। पहले शिगाफ में उन्होंने मुो यमन, दूसरे में शाम और तीसरे में मुल्के फारस के फतह की खुशखबरी सुनाई थी।’
खंदक की खुदाई करते भूख और थकन से निढाल लोगों को कड़ाके की ठंड का भी सामना करना पड़ रहा था। खंदक की राह में पत्थर आ जाने से उनका हौसला और पस्त हो गया था। उन्हें लगने लगा था कि अब तक की उनकी मेहनत यूं ही जाया हो जाएगी। लेकिन पत्थर की शक्ल में आई परेशानी जब आसानी से दूर हो गई तो मुसलमानों में नया जोश भर गया और वे दूने जोश से खंदक खोदने लगे। वे हर चंद मेहनत के किसी काम में लगे रहते ताकि कड़ाके की ठंड का उन्हें अहसास न हो। भूख से बचने उन्होंने अपने पेट पर पत्थर बांध रखे थे। यहां तक कि खुद पैगबंरे इस्लाम (स.अ.व.) ने भी अपने पेट पर पत्थर बांधा हुआ था।
उधर जैसे-जैसे खंदक का काम आगे बढ़ता जा रहा था, मदीना के मुनाफिक और यहूदियों की परेशानी बढ़ती जा रही थी। जजीरा-ए-अरब में यह अपनी तरह का अनोखा काम था। खासकर दुश्मनों से अपनी हिफाजत के लिए अपनाई जाने वाली यह हिकमत बिल्कुल नई थी। शुरुआत में इसकी कामयाबी की जरा भी उम्मीद नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे खंदक गहरी, लंबी और चौड़ी होती जा रही थी, मुनाफिकों और यहूदियों की बेचैनी और उसी रफ्तार में मुसलमानों का जोश बढ़ता जा रहा था।
यहूदी और मुनाफिक अब यह कहकर मुसलमानों का मजाक उड़ाने लगे थे कि टिड्डी दल की शक्ल में लश्करे कुरैश मुसलमानों को नेस्त-ओ-नाबूद करने के लिए मदीना की तरफ बढ़ा चला आ रहा है, तमाम अरब मुसलमानों से दुश्मनी पर आमादा है और मुसलमानों के खून का प्यासा है, और इधर मुसलमान एक पत्थर के टूटने से फारस, यमन और मुल्के शाम के फतह का ख्वाब देख रहे हैं। यहूदियों और मुनाफिकों ने यह कहने से भी गुरेज न किया कि पैगंबरे इस्लाम (स.अ.व.) फारस, यमन और मुल्के शाम के फतह का ख्वाब दिखाकर मुसलमानों को बेवकूफ बना रहे हैं। कहने लगे-‘मक्कह से आ रहे टिड्डी दल से तो बच लो पहले।’
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