इन्सानियत की रोशनी गुम हो गई कहाँ,
साए तो हैं आदमी के, आदमी कहां।
फ़लस्तीन में इन्सानियत का क़त्ल-ए-आम हो रहा है। लाखों लोग बे-घर हैं, हज़ारों माएं अपने जिगर के टुकड़ों को खो चुकी हैं और हर-रोज़ दर्जनों मासूम बच्चे मिट्टी तले दफ़न हो जाते हैं। अस्पताल मलबे का ढेर हैं, स्कूल क़ब्रिस्तान में तबदील हो गए हैं, हर चीज़ खन्डर बन चुकी है। ऐसे में हर इंसाफ़ पसंद, बा ज़मीर इन्सान सवाल कर रहा है कि जब आलमी ज़मीर इन कफ़नों को देखकर भी ना जागे, तो फिर ये 'यौम-ए-इन्सानियत' डे किसलिए?
अक़वाम-ए-मुत्तहिदा की क़रारदादें काग़ज़ के ढेर के सिवा कुछ नहीं। अक़वाम-ए-मुत्तहिदा और इससे मुंसलिक तमाम तन्ज़ीमों के साथ-साथ योरपी यूनीयन, जो इन्सानी हुक़ूक़ की सबसे बड़ी दावेदार है, फ़लस्तीन पर आकर ख़ामोश तमाशाई बन जाती है। एक तरफ़ इन्सानी हमदर्दी के तराने गाए जाते हैं तो दूसरी तरफ़ फ़लस्तीन की चीख़ती-चिल्लाती माओं और मासूम बच्चों की आहों पर कान बंद कर लिए जाते हैं। आज जब दुनिया अंधी बनी हुई है, तो अवाम और दानिशवरों की ज़िम्मेदारी है कि वो फ़लस्तीन के हक़ में खड़े हों। अगर हम मज़लूम के साथ आवाज़ नहीं मिलाएँगे, तो ये हमारी जमहूरीयत के नाम पर होगा धब्बा होगा।
इस ज़ुलम में सबसे बड़ा किरदार मीडीया का है। मग़रिबी मीडीया इसराईल को मज़लूम और फ़लस्तीनीयों को दहश्तगर्द बना कर पेश करता है। जब मीडीया सच्च बोलने के बजाय झूट को बढ़ा चढ़ा कर दिखाए तो इन्सानियत की जंग पहले ही हार जाती है।
दुनिया की बड़ी ताक़तें इसराईल को असलाह फ़राहम कर रही हैं और इसराईल ख़ुद एक बहुत बड़ा असलाह का सौदागर है। उसकी मईशत का पहिया ही जंगी साज़-ओ-सामान से चलता है। अमरीका और यूरोप के असलाह साज़ इदारे हर धमाके और हर क़तल से मुनाफ़ा कमाते हैं। हक़ीक़त ये है कि फ़लस्तीन का लहू दरअसल ''वार इंडस्ट्री' के लिए एक कारोबार बनकर रह गया है।
जब आलमी ताक़तें अंधी बनी हों तो अवाम को बेदार होना होगा। इसराईली मसनूआत और कंपनियों का बाईकॉट एक मूसिर हथियार है। अगर दुनिया-भर के लोग मुत्तहिद हो कर इसराईली इश्याय और उनके सरमायाकारों को मुस्तर्द करें तो ये एक पुरअमन मगर ताक़तवर एहतिजाज होगा जो हमारे फ़लस्तीनियों के हक़ में होगा और हम कहीं ना कहीं उन मज़लूमों के साथ शुमार होंगे।
गिर रहा है दिन-ब-दिन इन्सानियत का मुक़ाम
और इन्सान का दावा है कि हम तरक़्क़ी पर हैं।
फ़लस्तीन की गलियों में बारूद की बदबू रच-बस गई है, दर-ओ-दीवार पर ख़ून के धब्बे हैं। माओं के हाथ में खिलौना नहीं, बच्चे का ख़ून आलूद लिबास है। बाप के हाथों में अपने लख्ते जिगर का जनाज़ा है। हालत ये है कि एक बाप अपने नोमोलूद जुड़वा बच्चों का पैदाइशी सर्टीफिकट बनवाने जाता है, लेकिन जब तक वापस आता है, बच्चे इस दुनिया से रुख़स्त हो चुके होते हैं। अस्पतालों में डाक्टर नहीं, माँ-बाप अपने ज़ख़मी बच्चों को बाँहों में लिए आख़िरी साँसों तक रोते हैं। हर दिन दर्जनों मासूम बच्चे मिट्टी तले दफ़न हो जाते हैं। स्कूल की घंटियाँ ख़ामोश हैं, स्कूल बैग मिट्टी तले दब गए हैं, किताबों के औराक़ ख़ून से तर हैं। कोई ज़रा सोचे, क्या मासूम आँखों में डर और ख़ौफ़ के साए देखना इन्सानियत है, क्या एक बच्चे की चीख़ दुनिया को झंझोड़ने के लिए काफ़ी नहीं, अगर ये सब देखकर भी हमारे दिल ना लरजें, तो इन्सानियत का लफ़्ज़ हमारे लिए शर्मिंदगी के सिवा कुछ भी नहीं।
सबसे ज़्यादा अफ़सोसनाक पहलू मुस्लिम ममालिक की बे-हिसी है। ओआईसी और मुस्लिम वर्ल्ड लीग रस्मी क़रारदादों के सिवा कुछ नहीं कर पाते। पड़ोसी मुल्क और तुर्की की तरफ़ से भी बयानात ही आते हैं लेकिन अमली दबाव ना के बराबर है। एक उम्मत का होने के बावजूद दावेदार जब ख़ामोश तमाशाई बन जाएं तो दुश्मन के हौसले ख़ुद बख़ुद बढ़ जाते हैं।
ये हक़ीक़त फ़रामोश नहीं की जा सकती कि फ़लस्तीन का ज़ख़म अकेला नहीं। पूरी दुनिया में मुस्लमानों को मुनज़्ज़म तौर पर निशाना बनाया जा रहा है। बर्मा (मियांमार) में रोहंगया मुस्लमानों की नसल कुशी दुनिया ने अपनी आँखों से देखी है जहां लाखों अफ़राद को अपने घरों से बेदख़ल कर कैम्पों में धकेल दिया गया। उनकी बस्तियां जला दी गईं, औरतों की अस्मतें पामाल हुईं और मासूम बच्चों को ज़िंदा आग में झोंका गया। दुनिया ने ये सब कुछ देखा मगर 'इन्सानी हुक़ूक़ के अलमबरदार इदारे ख़ामोश तमाशाई बने रहे।
भारत में भी मुस्लमानों को सीएए और एनआरसी के नाम पर शहरीयत से महरूम करने की कोशिश की जा रही है। लाखों मुस्लमान अपने ही वतन में 'अजनबी' क़रार दिए जा रहे हैं। आसाम और दीगर रियास्तों में डिटेंशन कैंप पहले ही क़ायम हैं जहां ग़रीब और मजबूर मुस्लमान बुनियादी इन्सानी हुक़ूक़ से महरूम कैदियों की तरह ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। ये मुआमला महज एक मुल्क का अंदरूनी मसला नहीं बल्कि पूरी इन्सानियत के ज़मीर पर एक सवालिया निशान है।
ये तमाम मज़ालिम एक ही ज़ंजीर की कड़ियाँ हैं। फ़लस्तीन हो या बर्मा, भारत के मुस्लमान हों या कहीं और के, हर जगह ताक़तवर ज़ालिम और कमज़ोर मज़लूम के दरमयान जंग चल रही है। अगर आज दुनिया ने फ़लस्तीन की चीख़ ना सुनी तो कल ये जुल्म किसी और खित्ते में पूरी क़ुव्वत-ओ-ताक़त से दुहराया जाएगा। इसलिए हमें ये याद रखना चाहीए कि ये मसला सिर्फ फ़लस्तीनीयों का नहीं बल्कि ये पूरी इन्सानियत का इजतिमाई मसला है।
आज जब आलमी ताक़तें और मीडीया अंधी और बहरी बनी हुई है, अवाम और दानिशवरों पर ज़िम्मेदारी दोगुनी हो जाती है। हमें अपने क़लम, अपनी तक़रीर, अपने बाईकॉट, और अपनी इजतिमाई आवाज़ के ज़रीये फ़लस्तीन और दीगर मज़लूम क़ौमों के साथ खड़ा होना होगा। अगर हम यूं ही ख़ामोश तमाशाई बने रहे तो तारीख़ हमें कभी माफ़ नहीं करेगी।
याद रखें, आलमी यौम-ए-इन्सानियत तब ही बा मानी होगा जब फ़लस्तीन में जारी इन्सानियत का क़तल बंद होगा, जब इसराईल के ज़ुलम का ख़ातमा होगा, जब अमन-ओ-इन्साफ़ क़ायम होगा, जब आलमी इदारे सियासत के बजाय सच्चाई के साथ खड़े होंगे।
सबसे ज़्यादा अफ़सोसनाक पहलू मुस्लिम ममालिक की बे-हिसी है। ओआईसी और मुस्लिम वर्ल्ड लीग रस्मी क़रारदादों के सिवा कुछ नहीं कर पाते। पड़ोसी मुल्क और तुर्की की तरफ़ से भी बयानात ही आते हैं लेकिन अमली दबाव ना के बराबर है। एक उम्मत का होने के बावजूद दावेदार जब ख़ामोश तमाशाई बन जाएं तो दुश्मन के हौसले ख़ुद बख़ुद बढ़ जाते हैं।
ये हक़ीक़त फ़रामोश नहीं की जा सकती कि फ़लस्तीन का ज़ख़म अकेला नहीं। पूरी दुनिया में मुस्लमानों को मुनज़्ज़म तौर पर निशाना बनाया जा रहा है। बर्मा (मियांमार) में रोहंगया मुस्लमानों की नसल कुशी दुनिया ने अपनी आँखों से देखी है जहां लाखों अफ़राद को अपने घरों से बेदख़ल कर कैम्पों में धकेल दिया गया। उनकी बस्तियां जला दी गईं, औरतों की अस्मतें पामाल हुईं और मासूम बच्चों को ज़िंदा आग में झोंका गया। दुनिया ने ये सब कुछ देखा मगर 'इन्सानी हुक़ूक़ के अलमबरदार इदारे ख़ामोश तमाशाई बने रहे।
भारत में भी मुस्लमानों को सीएए और एनआरसी के नाम पर शहरीयत से महरूम करने की कोशिश की जा रही है। लाखों मुस्लमान अपने ही वतन में 'अजनबी' क़रार दिए जा रहे हैं। आसाम और दीगर रियास्तों में डिटेंशन कैंप पहले ही क़ायम हैं जहां ग़रीब और मजबूर मुस्लमान बुनियादी इन्सानी हुक़ूक़ से महरूम कैदियों की तरह ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। ये मुआमला महज एक मुल्क का अंदरूनी मसला नहीं बल्कि पूरी इन्सानियत के ज़मीर पर एक सवालिया निशान है।
ये तमाम मज़ालिम एक ही ज़ंजीर की कड़ियाँ हैं। फ़लस्तीन हो या बर्मा, भारत के मुस्लमान हों या कहीं और के, हर जगह ताक़तवर ज़ालिम और कमज़ोर मज़लूम के दरमयान जंग चल रही है। अगर आज दुनिया ने फ़लस्तीन की चीख़ ना सुनी तो कल ये जुल्म किसी और खित्ते में पूरी क़ुव्वत-ओ-ताक़त से दुहराया जाएगा। इसलिए हमें ये याद रखना चाहीए कि ये मसला सिर्फ फ़लस्तीनीयों का नहीं बल्कि ये पूरी इन्सानियत का इजतिमाई मसला है।
आज जब आलमी ताक़तें और मीडीया अंधी और बहरी बनी हुई है, अवाम और दानिशवरों पर ज़िम्मेदारी दोगुनी हो जाती है। हमें अपने क़लम, अपनी तक़रीर, अपने बाईकॉट, और अपनी इजतिमाई आवाज़ के ज़रीये फ़लस्तीन और दीगर मज़लूम क़ौमों के साथ खड़ा होना होगा। अगर हम यूं ही ख़ामोश तमाशाई बने रहे तो तारीख़ हमें कभी माफ़ नहीं करेगी।
याद रखें, आलमी यौम-ए-इन्सानियत तब ही बा मानी होगा जब फ़लस्तीन में जारी इन्सानियत का क़तल बंद होगा, जब इसराईल के ज़ुलम का ख़ातमा होगा, जब अमन-ओ-इन्साफ़ क़ायम होगा, जब आलमी इदारे सियासत के बजाय सच्चाई के साथ खड़े होंगे।
- आईपीएस (रिटायर्ड डीजीपी, छत्तीसगढ़)
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