गैर मुस्लिमों ने भी की है उर्दू की ख़िदमत, राजा जय किशन अमली सबूत : एमडब्लयू अंसारी

 जमादिउल आखिर, 1447 हिजरी 

फरमाने रसूल ﷺ

"तुम अपने लिए भलाई के अलावा कोई और दुआ ना करो क्योंकि जो तुम कहते हो उस पर फरिश्ते आमीन कहते है।"

- मुस्लिम 

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बख्तावरअदब : भोपाल

    तारीख़ के औराक़ में बाअज़ शख़्सियात महज अफ़राद नहीं होतीं, बल्कि एक तहज़ीबी फ़िक्र की अलामत के तौर पर ज़िंदा रहती हैं। राजा जय किशन इन्ही नामों में से एक हैं। उनकी शख़्सियत हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद और अलीगढ़ तहरीक के मुशतर्का विरसे की याद दिलाती है। उनका शुमार सर सय्यद अहमद ख़ां के क़रीबी रफ़क़ा में होता है। उन्होंने ताअलीम, तहज़ीब और ज़बान के मैदान में नुमायां ख़िदमात अंजाम दी हैं। 

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Raja Jai Kishan


    राजा जय किशन का ताल्लुक़ एक मुअज़्ज़िज़ ख़ानदान से था, मगर उनकी फ़िक्र मज़हबी शनाख़्त से मावरा थी। उन्होंने सर सय्यद अहमद ख़ां के साथ जदीद तालीम, इजतिमाई इस्लाह और फ़िक्री बेदारी के मन्सूबों में अमली ख़िदमत अंजाम दी। सर सय्यद से उनका ताल्लुक़ अक़ीदत का नहीं बल्कि फ़िक्री हम-आहंगी का था, जो इस बात की दलील है कि अलीगढ़ तहरीक इबतिदा ही से मुशतर्का क़ौमी विरसा रही है, ना कि किसी एक क़ौम या मज़हब तक महदूद रही।
    उर्दू ज़बान के साथ राजा जय किशन का रिश्ता भी काबिल-ए-ज़िक्र है। उन्होंने उर्दू को ना सिर्फ अपने इलमी इज़हार का ज़रीया बनाया बल्कि उसके फ़रोग़ में फ़आल किरदार भी अदा किया। उर्दू की असल रूह मुशतर्का तहज़ीब और इलमी राबते की ज़बान रही है। इस ज़बान के फ़रोग़ में ग़ैर मुस्लिम शख़्सियात ने जो किरदार अदा किए हैं, उसका एतराफ़ किए बग़ैर उर्दू की तारीख़ मुकम्मल नहीं हो सकती। राजा जय किशन इसी सिलसिले का अहम नाम हैं।
    वे ना सिर्फ साईंसी, अदबी और तालीमी तहरीकों से वाबस्ता रहे बल्कि अलीगढ़ में क़ायम होने वाले तालीमी इदारों की हिमायत और मुआवनत भी करते रहे। उनकी माली, इंतिज़ामी और इलमी ख़िदमात ने सर सय्यद की तहरीक को मज़बूत बुनियाद फ़राहम की। उनकी कोशिशों के एतराफ़ में अलीगढ़ के तालीमी हलक़ों में उन्हें क़दर-ओ-एहतिराम की निगाह से देखा जाता था और अब भी देखा जाता है। उनकी वफ़ात पर अलीगढ़ में भी रंज-ओ-ग़म का इज़हार किया गया।
    राजा जय किशन का किरदार हमें ये याद दिलाता है कि जदीद भारत की तालीमी तहरीकें मुशतर्का जद्द-ओ-जहद का नतीजा थीं। आज जब समाज में तक़सीम की सियासत और लकीरें खींचने की कोशिशें बढ़ रही हैं, ऐसे किरदार हमारी तारीख़ में रोशनी का मीनार बन कर खड़े हैं। उनकी ज़िंदगी इस बात की दलील है कि कौमें सिर्फ एक तबक़े की कोशिशों से नहीं बनतीं बल्कि मुख़्तलिफ़ तबक़ात की मुशतर्का मेहनत से तरक़्क़ी करती हैं।
    अफ़सोस की बात ये है कि आज अलीग बिरादरी ख़ुद ही अपने ऐसे मुहसिनों को फ़रामोश कर चुकी है। सर सय्यद की तहरीक का सबसे बड़ा जोहर यही था कि मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब, तबक़ों और ज़बानों के लोग एक मुशतर्का इलमी मक़सद के लिए यकजा हों, मगर आज अलीग हलक़ों में सर सय्यद के रफ़क़ा और ख़ास कर ग़ैर मुस्लिम रफ़क़ा नीज़ ख़ुद सर सय्यद के यौम-ए-पैदाइश-ओ-वफ़ात पर उन्हें याद करने का कोई ज़िक्र ही नहीं होता। 
    आज इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि सर सय्यद के तमाम मुस्लिम-ओ-ग़ैर मुस्लिम रफ़क़ा को याद किया जाए। नीज़ दीगर सहाफ़ी-ओ-मुजाहिदीन (जिनकी तादाद सैंकड़ों है) जो अलीगढ़ तहरीक से जुड़े हैं, उन्हें भी याद किया जाए। अगर अलीग बिरादरी वाक़ई सर सय्यद के विरसे की वारिस है तो उन्हें पहले ये यक़ीनी बनाना होगा कि सिर्फ 17 अक्तूबर को यौम सर सय्यद मनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि उनकी इलमी तहरीक और उसमें मुआविन सभी शुरका को याद करना होगा। उनके मिशन और ख़ास कर तालीमी मिशन को आम-ओ-ख़ास तक पहुंचाना होगा क्योंकि सर सय्यद की तहरीक किसी एक क़ौम या मज़हब का मन्सूबा नहीं थी बल्कि मुशतर्का तहज़ीबी विरसे का नाम थी।
    राजा जय किशन को याद करना दरअसल अपने इजतिमाई शऊर, मुशतर्का तहज़ीब-ओ-तमद्दुन और गंगा जमुनी तहज़ीब को ताज़ा करना है। उनके यौम पैदाइश पर उन्हें ख़राज-ए-अक़ीदत पेश करते हुए हमें इस हक़ीक़त को भी याद रखना चाहिए कि तारीख़ का इन्साफ़ सिर्फ़ माज़ी की तारीफ़ नहीं बल्कि हाल में भी उन्हें याद रखना होगा।

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IPS (Retd. DGP)

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