जमादिउल आखिर, 1447 हिजरी﷽फरमाने रसूल ﷺ"सिर्फ तीन जगह पर झूठ जाएज़ और हलाल है, एक ये के आदमी अपनी बीवी से बात करें ताकि उसको राज़ी कर ले, दूसरा जंग में झूठ बोलना और तीसरा लोगों के दरमियान सुलह कराने के लिए झूठ बोलना।"- अबू दाऊद
18 दिसंबर अक़ल्लीयतों के हुक़ूक़ का आलमी दिन
✅ बख्तावर अदब : भोपाल
भारत मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब, ज़बानों और सकाफतों का मुल्क है। यही इस मुल्क की असल पहचान है। आईन-ए-हिंद ने हर शहरी को, चाहे वो अक्सरीयत में हो या अक़ल्लीयत में, बराबर के हुक़ूक़ दिए हैं। ये हुक़ूक़ किसी हुकूमत की मेहरबानी नहीं बल्कि आईनी ज़मानत हैं, जिन्हें कोई भी छीन नहीं सकता।
18 दिसंबर को अक़ल्लीयतों के हुक़ूक़ का दिन पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इस दिन का मक़सद ये याद दिलाना है कि मुल्क में रहने वाली अक़ल्लीयती बिरादरीयां मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और दीगर सभी मुल्क के बराबर के शहरी हैं और उन्हें भी पूरे हुक़ूक़ मिलने चाहिए। लेकिन अफ़सोस कि ये दिन अब सिर्फ एक रस्मी दिन बन कर रह गया है, जबकि हक़ीक़त इसके बिलकुल बरअक्स है।
आज मुलक के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। अक़ल्लीयतों के ख़िलाफ़ नफ़रतअंगेज़ बयानात दिए जा रहे हैं, उनकी मज़हबी शिनाख़्त को निशाना बनाया जा रहा है, कहीं गिरफ़्तारियों का सिलसिला है तो कहीं सख़्त क़वानीन का ग़लत इस्तिमाल हो रहा है। मज़हबी आज़ादी, लिबास, इबादत और तर्ज़-ए-ज़िंदगी तक पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कई जगहों पर क़ानून नाफ़िज़ करने वाले इदारे ख़ामोश तमाशाई बने नज़र आते हैं, जो हालात को और ख़राब कर है।
मौजूदा हालात में अक़ल्लीयतों को परेशान करने के लिए जिन क़वानीन और सरकारी कार्यवाईयों का सहारा लिया जा रहा है, वो भी किसी से छिपी हुई नहीं हैं। सीएए, एनआरसी जैसे क़वानीन ने अक़ल्लीयतों में ख़ौफ़ पैदा किया, तीन तलाक़, दफ़ा 370 की मंसूख़ी, तबदीले मज़हब के क़वानीन, गाय के तहफ़्फ़ुज़ के नाम पर बने क़वानीन, वक़्फ़ से मुताल्लिक़ मुजव्वज़ा बिल और दीगर क़वानीन को एक ख़ास तबक़े के ख़िलाफ़ इस्तिमाल किया गया। हजूमी तशद्दुद (मॉब लंचिंग) के वाक़ियात, बुलडोज़र के ज़रीये कार्यवाहीयां और क़ानून के नाम पर सज़ा देना, ये सब इन्साफ़ के बजाय ताक़त के इस्तिमाल की मिसालें बन चुकी हैं, जिसका सबसे ज़्यादा नुक़्सान अक़ल्लीयती बिरादरीयों को उठाना पड़ा है।
बुलडोज़र के ज़रीये की गई कार्रवाई, हजूमी तशद्दुद, हिरासत में अम्वात और नफ़रत की बुनियाद पर कारोबार और रोज़गार को नुक़्सान पहुंचाना, ये सब मुल्क की गंगा जमुनी तहज़ीब के लिए ख़तरे की घंटी हैं। अफ़सोस इस बात का है कि इन मुआमलात में सियासी सतह पर जवाबदेही के बजाय अक्सर ख़ामोशी इख़तियार की जाती है। जो पार्टियां ख़ुद को सैकूलर कहती हैं, उनकी ख़ामोशी भी कई सवाल खड़े करती है। बरसर-ए-इक्तदार पार्टियां मुसलसल ज़ुलम कर रही हैं और हिज़्ब-ए-मुखालिफ़ पार्टियां और मीडिया दोनों ख़ामोश तमाशबीन बनी हुई हैं।
अगर मजमूई तौर पर भारत में अक़ल्लीयतों के हालात पर नज़र डाली जाए तो ये कहना ग़लत ना होगा कि सरकारी रवैय्या आहिस्ता-आहिस्ता अक़ल्लीयतों सोयम, चहारुम दर्जे का शहरी बनाने की तरफ़ बढ़ रहा है। आईनी तौर पर बराबर के हुक़ूक़ के दावे तो किए जाते हैं, लेकिन अमली तौर पर अक़ल्लीयतों को शक और ख़ौफ़ की नज़र से देखा जा रहा है। रोज़मर्रा ज़िंदगी में इमतियाज़ी सुलूक, अदम तहफ़्फ़ुज़ का एहसास और सरकारी इदारों से इन्साफ़ ना मिलने की शिकायात बढ़ती जा रही हैं। ये सूरत-ए-हाल एक जमहूरी और आईनी मुल्क के शायाँ-ए-शान नहीं है।
ये भी ज़रूरी है कि हम आलमी हालात से सबक़ लें। हमारे पड़ोसी ममालिक बंगला देश वग़ैरा में भी हिंदू भाईयों पर होने वाले मज़ालिम की ख़बरें वक़तन फ़वक़तन सामने आती रही हैं। मियांमार में रोहंगया मुस्लमान आज भी ज़ुलम-ओ-सितम और दर-ब-दर की ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर हैं। चीन में इगोर मुस्लमानों के साथ जो सुलूक किया जा रहा है, वो पूरी इन्सानियत के लिए बाइस-ए-तशवीश है। इसी तरह फ़लस्तीन में निहत्ते शहरी, जिनमें बड़ी तादाद मुस्लमानों की है, बरसों से तशद्दुद और ना इंसाफ़ी का सामना कर रहे हैं। इसी तरह जहां भी एक मख़सूस ज़ात, मज़हब, सोच-ओ-फ़िक्र वाले लोग अक़ल्लीयत में हो, उनके साथ बरसर-ए-इक्तदार अक्सरीयत ज़ुलम-ओ-ज़्यादती करते हैं। चाहे वो अफ़्ग़ानिस्तान के अक़ल्लीयत हो या श्रीलंका के।
इन मिसालों से ये वाज़िह होता है कि जब रियास्तें अक़ल्लीयतों के हुक़ूक़ को नज़रअंदाज करती हैं तो उसके नताइज इंतिहाई ख़तरनाक साबित होते हैं। भारत को ऐसी किसी राह पर चलने से बचना चाहिए, यही मुल्क की सालमीयत के लिए बहुत अहम है।
आईन बनाने वालों ने अक़ल्लीयतों को अपने मज़हब पर अमल करने, अपनी इबादत-गाहों की हिफ़ाज़त और अपनी सक़ाफ़्त को ज़िंदा रखने का पूरा हक़ दिया है। लेकिन आज ये हुक़ूक़ कमज़ोर होते नज़र आ रहे हैं। इबादत-गाहों को तनाज़आत में घसीटा जा रहा है और मज़हबी मुक़ामात को सियासत का मैदान बनाया जा रहा है, जो मुल्क की यकजहती के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।
तालीम और मआशी मज़बूती के बग़ैर किसी भी बिरादरी की तरक़्क़ी मुम्किन नहीं। बदक़िस्मती से अक़ल्लीयतों के लिए तालीमी वज़ाइफ़, स्कालरशिप या तो महिदूद कर दी गई हैं या सिर्फ काग़ज़ों तक रह गई हैं। वज़ारत-ए-अक़ल्लीयती उमूर का किरदार भी पहले जैसा मोस्सर नज़र नहीं आता बल्कि महज नाम का लगता है। जब तालीम के मवाक़े कम होंगे तो पसमांदगी बढ़ेगी, जिसका नुक़्सान पूरे समाज को होगा।
एक तरफ़ सब का साथ, सब का विकास के नारे लगाए जाते हैं और दूसरी तरफ़ अक़ल्लीयतों में अदम तहफ़्फ़ुज़ का एहसास बढ़ता जा रहा है। खासतौर पर पसमांदा तबक़ात से जुड़े आईनी सवालात आज भी हल तलब हैं जिन पर संजीदा बातचीत और अमली क़दम उठाने की ज़रूरत है।
एक अहम आईनी मसला जिस पर जान-बूझ कर ख़ामोशी इख़तियार की जा रही है, वो 10 अगस्त 1950 का सदारती हुक्म है, जिसके तहत पसमांदा मुस्लमानों को दर्ज फेहरिस्त ज़ात (एससी) के दायरे से बाहर रखा गया। ये एक वाजेह आईनी तफ़रीक़ है, जिसकी वजह से पसमांदा मुस्लमान आज भी बुनियादी सहूलतों और तहफ़्फुज़ात से महरूम हैं। अगर वाक़ई समाजी इन्साफ़ और सबका विकास मक़सद है, तो इस ना इंसाफ़ी पर संजीदगी से नज़र-ए-सानी करते हुए इस सदारती हुक्म को जल्द ख़त्म करना होगा, इसी में भारत की भलाई मुज़म्मिर है।
अक़ल्लीयतों के हुक़ूक़ का दिन हमें ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम वाक़ई एक मुंसिफ़ाना और बराबर हुक़ूक़ वाले समाज की तरफ़ बढ़ रहे हैं, या ये दिन भी सिर्फ एक तारीख़ बन कर रह जाएगा, हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़ तक़रीबात से नहीं, बल्कि अमल से होता है और अमल कहीं नहीं दिखाई देता।
आख़िर में यही कहना है कि अक़ल्लीयतों के हुक़ूक़ का दिन सिर्फ मनाने के लिए नहीं, बल्कि ख़ुद एहतिसाबी के लिए होना चाहिए। मुसावात, इन्साफ़ और भाईचारा सिर्फ़ नारे ना रहें बल्कि हक़ीक़त बनें। हर शहरी की ज़िम्मेदारी है कि वो नफ़रत के ख़िलाफ़ खड़ा हो और आईन की हिफ़ाज़त करे, क्योंकि अगर अक़ल्लीयत महफ़ूज़ नहीं होंगे तो जमहूरीयत भी महफ़ूज़ नहीं रहेगी।
National Day of Minority Rights, bakhtawar adab, nai tahreek, hamza travel tales


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