- File Photo |
सन् 627 ईस्वी। हिजरत* का पांचवां साल।
पैगंबरे इस्लाम (स.अ.व.) के सामने खौजह कबीले के कुछ अफराद खड़े थे। हजरत उमर फारूख, हजरत अबू बक्र सिद्दीक, हजरत अली और सलमान फारसी (रदि.) के अलावा कुछ और मुसलमान भी वहां मौजूद थे। खौजह कबीले से मिली इस इत्तेला के बाद कि कबीला-ए-कुरैश का लश्कर शहरे मदीना में हमला करने के लिए कूच कर चुका है, एक पल के लिए वहां खामोशी पसर गई थी। फिक्रमंदी के आसार उनके चेहरे से जाहिर हो रहे थे और उनकी निगाहें पैगंबरे इस्लाम (स.अ.व.) को तक ही रही थीं जबकि वे खुद किसी गहरी सोच में डूबे हुए से लग रहे थे।
कुछ देर तक आप (स.अ.व.) यूं ही सोच में डूबे रहे फिर एक लंबी सांस लेकर आप (स.अ.व.) ने खौजह कबीले के लोगों से पूछा-‘लश्कर को यहां पहुंचने में कितने दिन लगेंगे।’
‘कम से कम बारह दिन।’ भीड़ में से किसी ने जवाब दिया।
‘ हूं...।’ थोड़ा रुककर आप (स.अ.व.) ने लश्कर की खबर लाने वाले से पूछा- ‘लश्कर की कैफियत क्या है।’
‘ कैफियत...।’ उस शख्स ने थोड़ा हिचकते हुए कहा-‘मक्कह से कूच करते समय लश्कर में लगभग दस हजार सिपाही थे। लेकिन...।’
‘लेकिन...।’
‘ जैसे-जैसे लश्कर आगे बढ़ता जा रहा है।’ उस शख्स ने अपनी बात आगे बढ़ाई-‘लड़ाकों की तादाद भी बढ़ती जा रही है। रास्ते में बनू सुलैम, बनू असद, गतफान, अहाबिश, महामह, फुजारा, अशजह और बनू मुर्रा वगैरह दीगर कबीले के लड़ाकू भी अपने-अपने इलाकों से निकलकर लश्कर में शामिल होते जा रहे हैं। उनमें बड़ा जोश है और वो ये अहद कर के चले हैं कि दुनिया से मुसलमानों का नामो-निशां मिटा कर ही दम लेंगे।’ कहकर वह शख्स खामोश हो गया।
उसके चुप होते ही वहां फिर सन्नाटा पसर गया था। सबकी नजरें अब भी आप (स.अ.व.) पर ही टिकी थी। बीच-बीच में अलबत्ता कनखियों से वे एक-दूसरे को जरूर देख लेते।
थोड़ी देर की खामोशी के बाद आप (स.अ.व.) ने हजरत अबू बक्र सिद्दीक और हजरत अली (रदि.) वगैरह को मुखाबित किया। बोले-‘कबीला-ए-कुरैश काफी दिनों से शहरे मदीना पर हमला करने की तैयारी में मशरूफ था। कुरैश चूंकि अब तक अपनी किसी चाल में कामयाब नहीं हो सका और न किसी लड़ाई में फतहयाब हो पाया है इसलिए इस बार वह मुकम्मल तैयारी के साथ हमलावर होने चला है। लगता है, यह जंग आखिरी और फैसलाकुन होगी।’ एक पल के लिए रुक कर आप (स.अ.व.) ने आगे कहा-‘लश्करे कुरैश और मुसलमानों की तादाद को देखते हुए तय है कि इस बार कुरैश के साथ आमने-सामने की लड़ाई की बजाए हमें दिफाअ (प्रतिरक्षा) का तरीका अपनाना होगा। हमारे पास सिर्फ तीन हजार की फौज है और कुरैश की फौज हमसे चार गुना से भी ज्यादा है। ऐसे में खुले मैदान में उनका सामना करना अक्लमंदी नहीं होगी बल्कि कोई ऐसा तरीका अपनाना होगा जिससे हमारा कम से कम नुकसान हो और हम उनका मुकाबला भी कर सकें।’
‘ मदीना में तो कोई ऐसा किला भी नहीं है जहां रहकर हम अपना बचाव करते हुए उनका मुकाबला कर सकें।’ वहां मौजूद मुसलमानों में से किसी शख्स ने फिक्र जताई।
‘ तो क्या हुआ जो हमारे पास दिफाअ का मुकम्मल इंतजाम नहीं है...।’ किसी और के कुछ बोलने से पहले ही हजरत उमर फारूख (रदि.) बोले-‘हमने अब तक जितनी भी जंग लड़ी है, उसमें न तादाद की कमी-बेशी का कोई दखल था न खुले मैदान या किले की जरूरत को तरजीह दी गई थी। बल्कि सभी जंग महज खुदा के भरोसे पर लड़ते रहे। और खुदा ने हमेशा हमारी मदद भी फरमाई है। अब भी खुदा ही पर भरोसा कर जंग शुरू कर दी जाए।’
हजरत उमर फारूख (रदि.) की बातें सुनकर हजरत अली (रदि.) ने भी जोश में भरकर कहा-‘दुनिया में सिर्फ वही कौम तरक्की कर सकती है, जो अपने पांव पर खड़ा होना जानती है और हर कुर्बानी के लिए तैयार रहती है। दुश्मन की तादाद चाहे जितनी भी हो, हमारा काम लड़ना है और खुदा का काम अपने परस्तारों की इमदाद करना है। हमें बगैर किसी खौफ के लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए।’
हजरत अली का जोश देख हजरत अबू बक्र सिद्दीक (रदि.) ने कहा-‘जिस खुदा ने हमें पैदा फरमाया है और हमारी नुसरत का वादा किया है, बेशक वह हमारी मदद करेगा। लेकिन ये किसी तरह मुमकिन नहीं कि हम मुट्ठीभर इंसान लश्करे कुरैश से खुले मैदान में लड़ें। हमें दूरअंदेशी से काम लेना होगा।’ उन्होंने आगे कहा-‘हमें खतरा सिर्फ लश्करे कुरैश से ही नहीं, मदीना में रहने वाले आस्तीन के सांपों से भी है। खुद हमारी जमात में ऐसे लोग मौजूद हैं, जो मुसलमानों की बर्बादी की तदबीर करते रहते हैं।’
‘मौजूदा सूरते हाल को देखते हुए मेरे पास एक तरकीब है।’ अब तक खामोश खड़े हजरत सलमान फारसी (रदि.) ने कहा-‘आप जानते हैं कि मैं फारस का रहने वाला हूं। फारस में ऐसे मौकों पर जब शहर में किसी बड़ी फौज के हमले का अंदेशा होता था, शहर के आसपास खंदक खोद दी जाती थी जिससे फौज को सीधे शहर में हमला करने का मौका न मिले।’
‘खंदक...।’ हजरत उमर (रदि.) ने पूछा ‘ये क्या होता है।’ हजरत उमर (रदि.) के अलावा दीगर लोग भी सवालिया नजरों से हजरत सलमान फारसी (रदि.) को देखने लगे।
हजरत सलमान फारसी ने खंदक की तफ्सील बयान करते हुए कहा-‘ये काम थोड़ा दुश्वार जरूर है, लेकिन अगर हमने ऐसा कर लिया तो हम न सिर्फ दुश्मनों की फौज को शहर में दाखिल होने से रोक सकते हैं बल्कि उनका डटकर मुकाबला भी कर सकते हैं।’
खंदक के मुतअल्लिक जानकर देर तक उस पर गौर किया जाता रहा। लेकिन सवाल था कि खंदक खोदेगा कौन। मुसलमानों के पास सिर्फ बारह दिनों का समय था और फौज के नाम पर सिर्फ तीन हजार अफराद। ऐसी मुश्किल घड़ी में खंदक खोदवाने जैसा दुश्वार काम भी अगर इन मुट्ठीभर जंगजूओं से लिया जाता तो तय था कि जंग से पहले ही उनकी हिम्मत पस्त हो जाती। लेकिन और कोई चारा भी नहीं था। आप (स.अ.व.) ने हालात को देखते हुए खंदक खोदने का हुक्म जारी कर दिया। आप (स.अ.व.) ने कहा-‘तमाम मुसलमान और मदीना में रहने वाले यहूदी व मुनाफिक मिलकर खंदक खोदना शुरू कर दें लेकिन...उससे पहले मदीने के आसपास जितने भी खेत और बाग हैं, सबकी पैदावार तोड़कर मदीना पहुंचा दी जाए।’
0 टिप्पणियाँ