उर्दू महकमों के प्रोग्रामों में ही उर्दू रस्म-उल-ख़त का ना होना काबिल-ए-मुज़म्मत : एमडब्ल्यू अंसारी

 रबि उल आखिर 1446 हिजरी 

फरमाने रसूल ﷺ 

अफज़ल ईमान ये है कि तुम्हें इस बात का यकीन हो के तुम जहाँ भी हो, खुदा तुम्हारे साथ है।

- कंजुल इमान

9 नवंबर, आलमी यौम-ए-उर्दू पर खास 

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नई तहरीक : भोपाल

उर्दू हमारी मादरी ज़बान है, हम बचपन से ही उर्दू बोलते, लिखते और पढ़ते आ रहे हैं। अरबी के बाद सबसे ज़्यादा दीनी किताबें अगर किसी ज़बान में हैं, तो वो उर्दू ज़बान में हैं। उर्दू ज़बान एक ज़िंदा ज़बान है, जो हमारी तहज़ीब-ओ-मुआशरे की पहचान है। उर्दू की बका और फ़रोग़ हम सबकी ज़िम्मेदारी है। हम सबको उसके लिए मेहनत-ओ-कोशिश करना चाहिए। खासतौर पर जो इदारे ख़ालिस उर्दू ज़बान के नाम पर बने हैं, और उर्दू दां हज़रात जिनकी रोज़ी-रोटी ही उर्दू है, उनकी ज़िम्मेदारी उर्दू के फ़रोग़ के तंई मज़ीद बढ़ जाती है। बिलमुक़ाबिल दीगर तन्ज़ीमों और अफ़राद के। उर्दू ज़बान-ओ-अदब के नाम पर चल रहे इदारों को इस पर ख़ुसूसी तवज्जा देने की ज़रूरत है।
    ये बात याद रखना चाहिए कि उर्दू की बका का सबसे अहम तरीन पहलू उर्दू रस्म-उल-ख़त है। उर्दू रस्म-उल-ख़त का इख़तियार करना ही उर्दू जानना है, वर्ना आजकल रोमन उर्दू की वबा भी आम हो गई है जिसमें हर आम-ओ-ख़ास मुलव्वस है। एक तरफ़ जहां मुशायरों की बाढ़ आई हुई है और उर्दू के नाम से ढेर सारे प्रोग्राम हो रहे हैं, इसके बावजूद उर्दू रस्म-उल-ख़त से लोगों की ना वाक़फ़ीयत बढ़ती जा रही है।

    ऐसे में हम सब उर्दू के फ़रोग़ का दम भरने वाले और ख़ास कर उर्दू दां हज़रात की ज़िम्मेदारी बनती है कि उर्दू रस्म-उल-ख़त इख़तियार करने पर ज़ोर दें और जो इदारे उर्दू के नाम पर हो रहे प्रोग्राम में उर्दू को मह सुर्ख़ी बना दें उनका बाईकॉट करें। या उनके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करना करें ताकि उर्दू के साथ इस तरह की ना इंसाफ़ी ना हो।
    हाल ही में ''यौम सर सय्यद' के मौके पर दुनियाभर में प्रोग्राम का इनइक़ाद किया गया, कॉलिजों और यूनीवर्सिटीज़ के महिकमों के बैनर तले भी प्रोग्राम्स मुनाक़िद हुए। इसके अलावा मुशायरे, ग़ज़लगोई, बैतबाज़ी वग़ैरा के प्रोग्राम होते ही रहते हैं लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि उर्दू महिकमों के ज़ेर-ए-इंतिज़ाम होने वाले प्रोग्रामों के इश्तिहारात, बैनर, पोस्टर्स वग़ैरा से ही उर्दू ज़बान को ग़ायब कर दिया जाता है। पूरा का पूरा इश्तिहार अंग्रेज़ी ज़बान में ही शाइआ किया गया, एक लफ़्ज़ भी उर्दू का कहीं देखने को नहीं मिला और अगर कहीं उर्दू को जगह दी भी गई तो महिज़ सुर्ख़ी की हद महिदूद रखा गया। ये बेहद शर्मनाक और काबिल-ए-अफ़सोस है।
    हमें तो उर्दू को बचाने के लिए स्कूलों, कॉलिजों और यूनीवर्सिटीयों में उर्दू असातिज़ा की तक़र्रुरी के लिए मर्कज़ी-ओ-रियास्ती हुकूमतों से मुतालिबा करते हुए हर प्लेटफार्म से आवाज़ बुलंद करनी चाहिए थी। हमें चाहिए था कि जिन रियास्तों में उर्दू अकैडमी का क़ियाम नहीं है, वहां उर्दू एकेडमी क़ायम करने का मुतालिबा करते। राजिस्थान उर्दू अकैडमी को बंद कर दिया गया है, उसके लिए आवाज़ बुलंद करनी थी। मादरी ज़बान यानी उर्दू सीखने सिखाने का माहौल बनाते। नीज़, कई रियास्तों, सूबों में तलबा को उर्दू की किताबें ही दस्तयाब नहीं है। हमें इन तलबा और उनके असातिज़ा के लिए पुर जोर कोशिश-ओ-जद्द-ओ-जहद करनी चाहिए थी लेकिन अफ़सोस! उर्दू के नाम पर क़ायम इदारे ही अगर उसकी फ़िक्र नहीं करेंगे तो अवामुन्नास से क्या उम्मीद की जा सकती है।
    ऐसे तमाम मवाक़े पर ऐसी तन्ज़ीमों को, जो उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ के लिए क़ायम हैं, उन्हें उर्दू के मसले मसाइल पर बेहस के साथ-साथ लायहा अमल तैयार करना चाहिए। साथ ही इस बात की भी फ़िक्र करना चाहिए कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है, और हमारी क्या ज़िम्मेदारी है, क्या हम वो ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं? हमें अपनी ज़िम्मेदारियों को समझना होगा और खासतौर पर उर्दू रस्म-उल-ख़त के इख़तियार करने पर ज़ोर देना होगा। नीज़ आइन्दा महीने 9 नवंबर को आलमी यौम उर्दू है। इस मौक़ा पर हम उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ के लिए क्या काम कर सकते हैं। क्या तजावीज़ हम पेश कर सकते हैं। तलबा के अंदर उर्दू के लिए जज़बा कैसे पैदा कर सकते हैं। 
    सही माअनों में हम उस वक़्त उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ में हिस्सादार बन सकते हैं, जब उर्दू उसके रस्म-उल-ख़त के साथ बाक़ी रहे और लोग उर्दू रस्म-उल-ख़त इख़तियार करने वाले बन जाएं। हम सब उर्दू के साथ होने वाली हर ना इंसाफ़ी, ताअस्सुबी रवैय्या के ख़िलाफ़ हर फोरम, हर प्लेटफार्म से आवाज़ बुलंद करें।



= बे नजीर अंसार एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर सोसायटी
भोपाल

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