इफ़तार और सहरी के दस्तरख़्वान और रस्म-ओ-रिवाज, पुरानी रवायत है पकवानों का तबादला

रमदान अल मुबारक, 1446 हिजरी 

   
फरमाने रसूल ﷺ  

"अल्लाह ताअला फरमाता है: मेरा बंदा फर्ज़ नमाज़ अदा करने के बाद नफिल इबादत करके मुझसे इतना नज़दीक हो जाता के मैं उससे मोहब्बत करने लग जाता हूँ।"
- सहीह बुख़ारी

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    आलम-ए-इस्लाम में रमज़ान उल-मुबारक के अय्याम मुख़्तलिफ़ मुल्कों  की तहज़ीब व सकाफ़त की अक्कासी करते हैं। जददा की तरह दीगर मुल्कों के शहरों में भी इस माह के दौरान मुख़्तलिफ़ रवायात देखने में आती है। 
    सऊदी अरब में भी तक़रीबन हर रीजन और शहर में मामूली इख़तिलाफ़ के साथ इफ़तार और सहर के लिए किए जानेवाले इंतिज़ामात और रस्म-ओ-रिवाज में फ़र्क़ होता है। रियाद में मुक़ामी रिवाज के मुताबिक़ इफ़तार दस्तर-ख़्वान पर आम तौर पर आब-ए-ज़म ज़म, खजूर, लस्सी, घी और अरबी क़हवा जरूरी होता है। इफ़तारी के बाद नमाज़ मग़रिब की अदायगी का एहतिमाम किया जाता है जिसके बाद अहले ख़ाना दुबारा दस्तरख़वान के गिर्द जमा हो जाते हैं और रिवायती इफ़तारी से लुतफ़ अंदोज़ होते हैं जिसमें मुक़ामी रिवायती डिश 'जरीश लाज़िमी होता है।
    ये डिश इंडिया और पाकिस्तान में बहुत शौक़ से खाई जाने वाली हलीम से मिलती जुलती है जिसकी तैयारी में कटी गंदुम, सफेद चावल, मसाले और गोश्त शामिल किया जाता है। सहरी की तैयारी इशा की नमाज़ के बाद से हर घर में शुरू कर दी जाती है जिसमें बुनियादी डिश 'कबसा गोश्त या मुर्ग़ी का पुलाव के साथ दीगर खाने भी शामिल किए जाते हैं।

सजा दिए जाते हैं गली कूचे


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    अहले जद्दा की क़दीम रिवायत के मुताबिक़ माह-ए-मुबारक का आग़ाज़ होते ही यहां के गली कूचे सजा दिए जाते हैं। बाजारों के अलावा मोहल्लों में भी छोटे-छोटे स्टॉलज़ लगाए जाते हैं, जहां इफ़तारी के लिए मुख्तलिफ किस्म की चीजें बिक्री के मयस्सर होती है। अहले जद्दा अपनी एक ख़ास रिवायत के मुताबिक रमज़ान उल-मुबारक के दौरान अरबी में बलेला कहे जाने वाले डिश के अलावा भुनी कलेजी के स्टाल जरूर लगाते हैं। जददा और मक्का के हर बड़े बाज़ार और चौक के अलावा गली मुहल्लों में भी ये स्टॉल रमज़ान से जुड़ी रिवायत का एक हिस्सा हैं जो बरसों से चली आ रही है।
    माहे रमजान में एक क़दीम (पुरानी) रिवायत मुसाफ़िरों को इफ़तार कराने की है। इस हवाले से लोग इफ़तारी पैकेटस ले कर चौराहों पर खड़े हो जाते हैं और हर आने वाले को इफ़तारी पैकेटस देते हैं जिनमें खजूर, जूस, तिकोना समोसा (क़ीमा या पनीर का बना हुआ) के अलावा अरबी मिठाई जिसे 'बसबोसा कहते हैं, होता है।
    दूसरी जानिब ताएफ में रमजान के इस्तकबाल का अंदाज मुख्तलिफ होता है। रमज़ान की आमद के साथ ही शहर के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर इस्तिक़बाल रमज़ान के हवाले से बोर्डज़ लगा दिए जाते हैं जबकि बाज़ारों को रमज़ान के फ़ानुस और क़ुमक़ुमों से सजाया जाता है।
    ताइफ की ख़ानदानी रावयात के मुताबिक़ माह रमज़ान का पहला रोज़ा ख़ानदान के सबसे बड़े फ़र्द के यहां खोला जाता है, इसके बाद दूसरे अफ़राद अपने घर में इफ़तार दस्तर-ख़्वान सजाते हैं।


मदीना मुनव्वरा में इफ्तार

अहले मदीना मुनव्वरा की बड़ी तादाद रमज़ान उल-मुबारक में इफ़तारी दस्तर-ख़्वान मस्जिद नबवी  में लगाती है। ये रिवायत बरसों से चली आ रही है। मस्जिद नबवी  के अंदर दस्तर-ख़्वान लगाने के लिए मस्जिद की इंतिज़ामीया से बाक़ायदा इजाज़तनामा हासिल करना पड़ता है जिसके मुताबिक हर शख़्स अपनी अलाट की गई जगह पर ही दस्तर-ख़्वान लगा सकता है।

    मस्जिद नबवी  में रोज़ा दारों को इफ़तार कराने और अपने दस्तर-ख़्वान पर बुलाने के लिए ख़ुसूसी तौर पर कारकुनों की ख़िदमात हासली की जाती हैं जो मस्जिद के बैरूनी सेहनों तक घूमते हैं और हर आने वाले को बड़ी ही इज़्ज़त-ओ-तकरीम के साथ अपना मेहमान बनने की दरख़ास्त करते हैं। मस्जिद नबवी  में इफ़तारी करने के इरादे से आने वालों को रास्ते में दसियों अफ़राद इंतिहाई इनकिसारी-ओ-आजिज़ी से ये कहते मिलते हैं कि 'हमें इज़्ज़त-अफ़ज़ाई का मौक़ा दें और हमारे साथ इफ़तार करें।

    अहले मदीना के इफ़तारी दस्तर-ख़्वान पर खजूर, रोटी और 'दक़्क़ा (चाट मसालहे) की तरह का एक मख़सूस मसाला होता है, जिसमें तिल ख़ुसूसी तौर पर शामिल किए जाते हैं और ये मसाला घी और खजूर के साथ मिला कर खाया जाता है, इस मसाला की ख़ुसूसीयत ये है कि प्यास की शिद्दत और दही की खटास को कम करता है। 

मशरिक़ी रीजन में इफ्तार 

मशरिक़ी रीजन में रहने वाले इस्तिक़बाल रमज़ान की रवायात पर आज भी इसी तरह क़ायम हैं, जैसे उनके अज्दाद क़ायम थे। रीजन की रिवायत के मुताबिक़ रमज़ान उल-मुबारक का चांद देखते ही ख़ानदान के बुज़ुर्ग के यहां पहुंच कर मुबारकबाद दी जाती है और घरों को हरमैन शरीफ़ैन की तसावीर से सजाया जाता है।
    मशरिक़ी रीजन ख़ासकर अलाहसा के बाशिंदे सदियों से क़ायम एक रिवायत 'अलंकसा पर आज भी क़ायम हैं। ये रिवायत दरअसल अपनी इफ़तारी पड़ोसियों के साथ बांटने की है। ये रिवायत अलाहसा इलाक़े की पहचान भी मानी जाती है।


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