रबि उल आखिर, 1447 हिजरी﷽फरमाने रसूल ﷺआलाह ताअला फरमाता है,:ऐ इंसान! मेरी इबादत के लिये फारिग हो जा, मैं तेरे दिल को मालदारी (कनाअत) से भर दूंगा, तेरी मोहताजी खत्म कर दूंगा, और अगर तू ऐसा नहीं करेगा तो मैं ऐसे कामों में मसरूफ कर दूंगा जो तेरे मुकद्दर में नहीं और तेरी मोहताजी खत्म नही करुँगा।*

✅ बख्तावर अदब : भोपाल
इसमें शक नहीं कि आज अगर उर्दू ज़बान ज़िंदा है, तो उसका सेहरा मदारिस-ए-दीनिया के सर है। मदारिस ही हैं, जिन्होंने उर्दू ज़बान-ओ-अदब, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन को बचाए रखा है। इन्हें मदारिस में उर्दू पढ़ाई भी जाती है, लिखी भी जाती है और बोली भी जाती है। यहां की फ़िज़ाओं में उर्दू सांस लेती है, असातज़ा अपनी मेहनत और तलबा अपनी लगन से उर्दू को नसल दर नसल मुंतक़िल करते हैं और उन्हीं की बदौलत आज उर्दू और उर्दू का रस्म-उल-ख़त बचा हुआ है।
मदारिस-ए-दीनिया दरअसल उर्दू, अरबी और फ़ारसी की तालीम की रीढ़ की हड्डी है। अगर ये इदारे ना होते तो नई नसल ना क़ुरआन को उसकी असल ज़बान में समझ पाती, ना फ़ारसी के सरमाया से आश्ना हो पाती और ना ही उर्दू अपनी असल रूह के साथ ज़िंदा रह पाती। अलमीया ये है कि जदीद जमिआत और सरकारी तालीमी इदारों ने इन ज़बानों को या तो महज रस्मी मज़मून बना दिया है या निसाब से ही बाहर कर दिया है। ऐसे में मदारिस एक मज़बूत क़िले की मानिंद खड़े हैं जो ना सिर्फ हमारी इलमी रिवायत को सँभाले हुए हैं, बल्कि तहज़ीबी विरसे को भी नई नसल तक मुंतक़िल कर रहे हैं।
अगर आज भी उर्दू में इलमी लिटरेचर तैयार हो रहा है, या अरबी-ओ-फ़ारसी की रोशनी क़ायम है तो इसकी असल क़ुव्वत इन्ही मदारिस से है।
दूसरी तरफ़, जो हज़रात ख़ुद को उर्दू के बड़े अलमबरदार और शायर कहते हैं, उनके हाल पर नज़र डालिए। मुशायरे में तशरीफ़ लाते हैं, कलाम सुनाते हैं लेकिन अक्सर अपना ही कलाम काग़ज़ या मोबाइल से देखकर पढ़ते हैं, वो भी उर्दू रस्म-उल-ख़त में नहीं बल्कि हिन्दी ज़बान या रोमन में होता है। यही वो लोग हैं, जो अपने आपको उर्दू का ख़ादिम तो कहते हैं, मगर रस्म-उल-ख़त तक से ना-बलद हैं। उन्हें ना उर्दू ख़त्ताती से ग़रज़ है ना किताबत से कोई मतलब। मक़सद बस सामईन की वाह-वाह और जेब की गर्मी है।
एक तल्ख़ हक़्क़ीत ये है कि आज के मुशायरे उर्दू ज़बान के तहफ़्फ़ुज़ के तईं मूसिर किरदार अदा नहीं कर पा रहै हैं। शाइरों के ये इजतिमाआत ज़बान की तरक़्क़ी के बजाय महिज़ तफ़रीह का सामान हुआ करते हैं। अक्सर शायर स्टेज पर आकर चंद मसखरे जुमले उछालते हैं, फिर दाद समेट कर रुख़स्त हो जाते हैं। ये हज़रात कभी उर्दू के मसला मसाइल पर और उर्दू के साथ हो रही ना इंसाफ़ी पर गुफ़्तगु नहीं करते, नीज़ हुकूमत के तास्सुबाना रवैय्या के ख़िलाफ़ कभी आवाज़ भी बुलंद नहीं करते कि भारत की बेटी के साथ खुले आम ना इंसाफ़ी क्यों हो रही है।
ये हज़रात कभी ज़बान की तरवीज के किसी हक़ीक़ी मंसूबे में हाथ नहीं डालते। ख़ुद को उर्दू का नुमाइंदा कहते तो हैं लेकिन हक़ीक़त में उर्दू के ज़ख़मों पर मरहम रखने के बजाय तमाशाइयों के दिल बहलाने और अपनी शौहरत बढ़ाने में लगे रहते हैं। ये बदतरीन सूरत-ए-हाल उर्दू जैसी प्यारी ज़बान के साथ एक खुला मज़ाक़ है।
ये भी एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि मुल्क में उर्दू के तालीमी इदारे ना होने के बराबर हैं। हुकूमत उर्दू के फ़रोग़ को रफ़्तार देने के बजाय हर वो काम कर रही है और हर वो हरबे इस्तिमाल कर रही है, जिससे उर्दू के फ़रोग़ की रफ़्तार कम हो जाए। अव्वलन तो उर्दू इदारे हैं ही नहीं और जो चंद एक इदारे हैं, वहां भी कई असातिज़ा ऐसे हैं जिन्हें ख़ुद उर्दू लिखने-पढ़ने में दुशवारी है। नतीजा ये है कि आज एमए उर्दू करने वाले तलबा की भी एक बड़ी तादाद ऐसी है जो बाज़ाबता तौर पर उर्दू लिख और पढ़ नहीं सकती।
हमें मानना पड़ेगा कि आज के दौर की सबसे बड़ी ज़रूरत है कि मदारिस और दीगर इदारों में ना सिर्फ उर्दू, अरबी और फ़ारसी पढ़ाई जाए बल्कि उसके साथ-साथ उर्दू टाइपिंग का हुनर भी सिखाया जाए। किताबों की कम्पोज़िंग, रसाइल-ओ-जराइद, अख़बारात और मीगज़ीन सब की बक़ा अब टाइपिंग के ज़रीया ही मुम्किन है और उन्हें सब चीज़ों से उर्दू परवान चढ़ती है।
उर्दू की दुनिया में वही क़लम ज़िंदा रहेगा जो की-बोर्ड पर दौड़ना जानता हो। हमारी तारीख़ और विरासत के ज़िंदा रखने का वाहिद हल ये है कि उर्दू ज़बान-ओ-अदब, नीज़ अरबी-ओ-फ़ारसी में जितना भी लिटरेचर सबको मंज़र-ए-आम पर लाया जाए और ज़्यादा से ज़्यादा किताबों की इशाअत हो।
मदारिस के तलबा को इस हक़ीक़त से आगाह करने की ज़रूरत है कि आज के अह्द में उर्दू की ख़िदमत सिर्फ किताबी मुताले तक महिदूद नहीं रह सकती। टैक्नोलोजी को अपनाना और रस्म-उल-ख़त को बरक़रार रखते हुए जदीद तक़ाज़ों से हम-आहंग होना ही उर्दू के वजूद की जमानत है।
याद रखिये, ज़बानें शाइरों की वाह-वाही से नहीं बचतीं। ज़बानें तालीमी इदारों, मदारिस, और उन मुहक़्क़िक़ीन-ओ-असातिज़ा से ज़िंदा रहती हैं जो आने वाली नसलों को उसके रस्म-उल-ख़त, उसके ज़ाइक़े और उसकी असल रूह से रोशनास कराते हैं। दरस-ओ-तदरीस के ज़रीया तलबा-ए-ओ- असातिज़ा के ज़रीया उर्दू एक नसल से दूसरे नसल में मुंतक़िल होती है।
मदारिस ही उर्दू के और गंगा जमुनी तहज़ीब के मुहाफ़िज़ हैं। उन्हीं से हमारी शिनाख़्त बाक़ी है। मनुवादी और पूंजीवादी अनासिर चाहते हैं कि मदारिस-ओ-मकातिब का नाम-ओ-निशान मिटा दिया जाए। हम सबको उन्हें बचाने और आबाद करने की फ़िक्र भी करना होगी।
आज अगर हमने आँखें ना खोली तो उर्दू का नोहा कल काग़ज़ पर नहीं बल्कि हिन्दी और रोमन रस्म-उल-ख़त में लिखा जाएगा। और ये हम सबके लिए शर्मिंदगी की सबसे बड़ी अलामत होगी।
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