यौम शहीदाँ सहाफ़त महज यादगार नहीं, सच्ची सहाफ़त के अह्द की तजदीद है : एमडब्ल्यू अंसारी

रबि उल आखिर, 1447 हिजरी 
फरमाने रसूल ﷺ
"जो कोई नजूमी (ज्योतिश) के पास जाए फिर उससे कुछ पूछे तो उसकी चालीस रात की नमाज़े क़ुबूल न होगी।"
- मुस्लिम

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✅ बख्तावर अदब : भोपाल

    हिंदूस्तानी सहाफ़त की तारीख़ में मौलवी मुहम्मद बाक़िर का नाम सुनहरे हुरूफ़ में दर्ज है। वे ना सिर्फ उर्दू सहाफ़त के अव्वलीन शहीदों में हैं बल्कि उन्होंने अपनी जान क़ुर्बान कर इस बात को साबित किया कि क़लम की हुर्मत जान से बढ़कर है। 
    मौलवी बाकिर की विलादत 25 सितंबर, 1780 को हुई थी। इस मौके पर मुहिब्बाने उर्दू और सहाफ़त की ये गूंज सुनाई दे रही कि इस दिन हर साल यौम शहीदाँ-ए-सहाफ़त के तौर पर मनाया जाए ताकि मौलवी बाकिर की क़ुर्बानी को याद करते हुए नई नसल को सच्ची सहाफ़त की राह दिखाई जा सके।
    मौलवी मुहम्मद बाक़िर 1836 में ''दिल्ली उर्दू अख़बार' के बानी और मुदीर थे। 1857 की जंग आज़ादी में उनका अख़बार अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अवामी जज़बात को बेदार करता रहा। हक़ की सदा बुलंद करने वाले मौलवी मुहम्मद बाक़िर ऐसे सहाफ़ी और मुजाहिद आज़ादी हैं, जिन्होंने अपनी जान देकर सहाफ़त की दुनिया को हमेशा के लिए अमर कर दिया। उन्हें बर्तानवी साम्राज्य के ऑफ़िसर मेजर विलियम हडसन ने तोप के दहाने पर बांध कर शहीद कर दिया था। ये क़ुर्बानी सहाफ़त की तारीख़ में पहली शहादत थी, जिसने उर्दू सहाफ़त को इज़्ज़त, वक़ार और एक अबदी विरासत अता की।
    अब तक भारत में सहाफ़त से वाबस्ता कई यादगार दिन मनाए जाते हैं, लेकिन सहाफ़ीयों की क़ुर्बानी को ख़राज-ए-अक़ीदत पेश करने के लिए कोई मख़सूस दिन तै नहीं है। यही वजह है कि अब 25 सितंबर यौम-ए-पैदाइश मौलवी मुहम्मद बाक़िर को ''यौम शहीदाँ-ए-सहाफ़त' के तौर पर मनाने की एक नई रिवायत की मांग आज पूरे भारत में उठ रही है और ना सिर्फ मुतालिबा हो रहा है बल्कि कई जगह बाक़ायदा तौर पर मनाया भी जा रहा है। 
    नीज़, ये मुतालिबा भी ज़ोर-ओ-शोर से किया जा रहा है कि मौलवी मुहम्मद बाक़िर के नाम से हर सूबा में एक यूनीवर्सिटी क़ायम की जाए। उनके यौम-ए-पैदाइश का दिन सिर्फ मौलवी मुहम्मद बाक़िर ही नहीं बल्कि उन सब शहीद सहाफ़ीयों की याद का दिन होगा, जिन्होंने हक़गोई की राह में अपनी जानें क़ुर्बान कीं।
    मौलवी बाक़िर के बाद भी उर्दू सहाफ़त ने आज़ादी की तहरीक में नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश किरदार अदा किया है। इनमें मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद के ''अलहलाल' और ''अलबलाग़' का नाम पूरी इज्जत ओ वकार से लिया जा सकता है। इनके अलावा हसरत मोहानी जैसे सहाफ़ीयों ने क़ैद-ओ-बंद की सऊबतें बर्दाश्त कीं। आज़ादी के बाद भी कई सहाफियों ने सच्चाई की ख़ातिर अपनी जानें दी हैं इन तमाम को ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करने के लिए ही यौम शहीदाँ सहाफ़त मनाया जाता है।
    मौजूदा दौर में सहाफ़त को कई नए चैलेंजिज़ दरपेश हैं। आज़ादाना सहाफ़त पर दबाव डाला जा रहा है। सच्च लिखने वाले सहाफ़ी आज भी जान का ख़तरा महसूस करते हैं। खासतौर पर उर्दू सहाफ़त वसाइल की कमी और हुकूमती बे-एतनाई का शिकार है। उर्दू अख़बारों और मैगज़ीन को इश्तिहारात से मुस्तसना रखा जाता है। 
    यौम शहीदाँ-ए-सहाफ़त उस पस-ए-मंज़र में एक नई उम्मीद है, जो हमें याद दिलाती है कि अगर मौलवी बाक़िर तोप के दहाने पर क़ुर्बान हो सकते हैं तो हम हक़ और सच्च की आवाज़ बुलंद करने से क्यों डरें ? क्या हमारा आईन हमें अपने हुक़ूक़ के लिए आवाज़ बुलंद करने का हक़ नहीं देता ? क्या हमारा मुल़्क जमहूरी मुल्क नहीं है ? यक़ीनन हमें हर चीज़ की आज़ादी आईन के तहत मिली हुई है जिसका इस्तिमाल हर एक बाशऊर इन्सान को करना चाहिए। उसी की एक कड़ी और एक सिलसिला यौम शहीदाँ-ए-सहाफ़त है, जिसका चर्चा आज हर सिम्त हो रहा है।
    25 सितंबर को मनाई जाने वाली ये नई रिवायत महिज़ एक तक़रीब नहीं बल्कि एक अह्द है। ये दिन इस बात का पैग़ाम देता है कि सहाफ़त का असल मक़सद सिर्फ ख़बर रसानी नहीं बल्कि अवाम के हक़ में सच्च लिखना, ज़ुलम के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करना और क़ुर्बानी की रिवायत को ज़िंदा रखना है।
    उनके नाम पर हर सूबा में एक यूनीवर्सिटी बनाई जाए। नीज़, मौलवी मुहम्मद बाक़िर शहीद के नाम से हर सूबे में तलबा के लिए स्कालरशिप जारी की जाए, यही उनकी ख़िदमात का एतराफ़ होगा।
    यक़ीनन, यौम शहीदाँ-ए-सहाफ़त को ज़ोर-ओ-शोर से मनाना उर्दू सहाफ़त की बक़ा, आज़ादी-ए-इज़हार की हिफ़ाज़त और सच्ची सहाफ़त की तरवीज के लिए संग-ए-मील साबित होगा। यही मौलवी मुहम्मद बाक़िर और दीगर शहीदाँ-ए-सहाफ़त को सच्ची ख़राज-ए-अक़ीदत होगी।

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