शाअबान अल मोअज्जम, 1446 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ"अल्लाह ताअला फरमाता है: मेरा बंदा किसी और चीज़ के जरिये मुझ से इतना करीब नहीं होता, जितना फर्ज़ इबादत के जरिये होता है।"
- सहीह बुखारी
उर्दू सिर्फ़ ज़बान या तहज़ीब ही नहीं, बल्कि एक तहरीक और तर्ज़-ए-हयात का नाम भी है। ये भारत की बेटी और हिंदी की बहन है, निहायत सलीस, शीरीं और मीठी है। रस्म-उल-ख़त इसका लिबास है। उर्दू रस्म-उल-ख़त का इख़तियार करना ही असल में उर्दू को इख़तियार करना है और इसी से ये बाक़ी रहेगी, वर्ना ये होगा कि हमारी आने वाली नसलें बरा-ए-नाम उर्दू बोल तो लेंगी लेकिन उर्दू में लिखी तहरीर पढ़ने से आजिज़ हो जाएंगी।
Read More :
रोमन उर्दू के नाम से लोगों में आम होती जा रही वबा के नुक़्सानात इंतिहाई संगीन हैं। इस तरीक़े से कहने को तो उर्दू लिखी जाएगी लेकिन उर्दू रस्म-उल-ख़त से ना वाक़फ़ीयत बढ़ती जाएगी जिसके ज़िम्मेदार हम और आप ख़ुद होंगे। इस तर्ज़-ए-तहरीर को दुश्मन-ए-उर्दू कहा जाए तो बे-जा ना होगा।
Read More :
ग़ौर करें कि रोमन उर्दू से उर्दू रस्म-उल-ख़त को क्या ख़तरा लाहक़ है। तुर्कों की मिसाल हमारे सामने है। जहां रोमन हुरूफ़ के ज़रीया तुर्क नसल को इस्लामी कुतुब, जो अरबी रस्म-उल-ख़त में थीं, उनसे दूर कर दिया गया। बाद में आने वाली नसल दीगर कुतुब तो दूर की बात है, क़ुरआन-ए-मजीद पढ़ने में भी दुशवारी का सामना कर रही थी। इसकी वजह क़ुरआन-ए-मजीद का अरबी रस्म-उल-ख़त है। नतीजा ये हुआ कि सल्तनत उस्मानिया के ज़माने में लिखी जाने वाली बेश-बहा कुतुब का ख़ज़ाना तो मौजूद था, लेकिन तुर्क इन किताबों को पढ़ने से क़ासिर थे।
हमें तो अपनों ने लूटा
आज आलम ये है कि आम तो क्या खास लोग भी उर्दू से मुताल्लिक प्रोग्राम में भी उर्दू को हाशिया पर रखे दे रहे हैं। और जो उदबा-ओ-शोरा-ए-उर्दू का राग अलापते फिरते हैं, या यूं कहें, उनकी रोज़ी रोटी ही उर्दू है, वो भी इस तरफ़ तवज्जा नहीं देते। उर्दू रस्म-उल-ख़त को फ़रामोश किया जा रहा है हत्ता कि ख़ालिस उर्दू मुशाविरों में भी शोरा अपनी स्क्रिप्ट रोमन में लिख कर पढ़ते हैं जिसमें ना तो तलफ़्फ़ुज़ का ठिकाना रहता है न हर्फ़ की अदायगी सही हो पाती है।
Read More :
ये बात भी काबिल-ए-ज़िक्र है कि मुशायरों के इनइक़ाद से उर्दू ज़बान का फ़रोग़ होना चाहिए जो इसकी असल रूह हुआ करती है। लेकिन मुशायरों के पोस्टर्स ही ग़ैर उर्दू ज़बान में होने लगे हैं। ये एक नाक़ाबिल फ़रामोश हक़ीक़त है कि जिस ज़बान का रस्म-उल-ख़त बाक़ी नहीं रहता, उस ज़बान में मौजूद क़ीमती सरमाया ज़ाए हो जाता है। हमारा तो अक्सर सरमाया उर्दू, फ़ारसी और अरबी ज़बान में है,अगर हमने अभी फ़िक्र नहीं की तो याद रखिए हमारे बच्चे उर्दू तहरीर देखकर समझ ही नहीं सकेंगे कि लिखा क्या है। जिस तरह दीगर कौमें अपनी तहज़ीब-ओ-रिवायत की हिफ़ाज़त करती हैं, जैसे ज्यूस, पंजाबी वग़ैरा, इसी तरह हम मुहिब्बाने उर्दू को भी जतन करना होगा। हमें अपने क़ीमती सरमाए को बचाने के लिए आज ही से पहल करना होगी। उर्दू अख़बारात, उर्दू अदब की मैगज़न, उर्दू की किताबें अपने मामूल में लाएं ताकि हमारी देखा देखी हमारे बच्चे भी उस पर अमल करें।
बकौल शायर
काग़ज़ की ये महक, ये निशा रूठने को है,
ये आख़िरी सदी है, किताबों से इश्क की।
0 टिप्पणियाँ