शमीम करहानी के ख्यालात को सहाफ़त, तालीम, सियासत और समाजी तहरीकों का हिस्सा बनाने की ज़रूरत

जिल हज्ज, 1446 हिजरी

   फरमाने रसूल ﷺ   

"आदमी के इस्लाम की खूबियों में से ये खूबी है के वो बेमकसद और फ़ुज़ूल काम छोड़ दें।"  

- तिर्मिज़ी 

मुल्क के मुमताज़ शायर, मुशाविरों की कामयाबी के ज़ामिन शमीम करहानि की यौम-ए-पैदाइश पर ख़िराज-ए-अक़ीदत


शमीम करहानी

✅ एमडल्यू अंसारी : भोपाल 

अनमोल सही, नायाब सही, बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं,
बस-प्यार हमारी क़ीमत है, मिल जाए तो हम बिक जाते हैं।
सिक्कों की चमक पे गिरते हुए देखा है, शेख़-ओ-बरहमन को,
फिर मेरे खन्डर की क़ीमत क्या, जब दैर-ओ-हरम बिक जाते हैं।

    भारत के मुमताज़ तरीन उर्दू ज़बान के शायर, अपनी ग़ज़लगोई और दर्दअंगेज़ तरन्नुम की वजह से मुल्कगीर शोहरत के मालिक, सामईन के दिलदादा-ओ-पसंदीदा शायर, भारत के मुशाविरों की कामयाबी के ज़ामिन समझे जानेवाले हर दिल अजीज शमीम करहानी की यौम-ए-पैदाइश के मौके पर अह्ले वतन की जानिब से उन्हें ख़राज-ए-अक़ीदत पेश की गई।
    शमीम करहानी की पैदाइश 8 जून 1913 को मौज़ा पारा, ज़िला ग़ाज़ीपूर में हुई। शमीम करहानी का पैदाइशी नाम सय्यद शम्सुद्दीन हैदर था जबकि वो शमीम करहानि के नाम से मशहूर हुए। उनके वालिद भी शेअर-ओ-अदब के दिलदादा थे। ख़ानदान के कुछ बुज़ुर्ग बाक़ायदा शायरी करते थे, इसीलिए अदबी-ओ-शायराना माहौल में उनकी परवरिश हुई। उनकी वफात 19 मार्च, 1975 में हुई।
    शमीम ने इब्तदाए शायरी में अपनी कुछ नज़्में और ग़ज़लें अल्लामा आरज़ू, लखनवी को दिखाई। लेकिन अल्लामा ने ये कह कर इस सिलसिले को मुनक़ते कर दिया कि इनकी फ़िक्र एक बहर-ए-रवां है, ये आप अपनी राह निकाल लेंगे'। अल्लामा आरज़ू लखनवी की ये पेशगोई सही साबित हुई और शमीम अपने दौर के नज़म-ओ-ग़ज़ल के मोतबर-ओ-मुस्तनद शायर तस्लीम किए जाने लगे।
    शमीम करहानी ने मौलवी, फ़ाज़िल कामिल और मुंशी के इम्तेहान पास कर अलीगढ़ से इंटरमीडिएट का इम्तिहान पास किया। कुछ अरसा आज़मगढ़ के डीएवी कॉलेज में उर्दू, फ़ारसी के मोअल्लिम के फ़राइज़ सरअंजाम दिए। 1950 में शुमाली हिंद की क़दीम तरीन-ओ-तारीख़साज़ तालीमी इदारे और दिल्ली के मशहूर ऐंगलो अरेबिक स्कूल के तदरीसी अमले में शामिल हो गए और तादम-ए-वफ़ात ईसी इदारे से वाबस्ता रहे।
    शमीम करहानी ने तरक़्क़ी-पसंद तहरीक से वाबस्तगी इख़तियार करते हुए 1942-47 की अंग्रेज़ो भारत छोड़ो तहरीक के दौरान रोज़ाना एक बाग़ियाना नज़म लिख लेते थे। इस दौरान लिखी गईं उनकी नज़्में 'रोशन अंधेरा नाम के शेअरी मजमूआ में शाइआ हुई हैं। 1948-47; में जब महात्मा गांधी की शहादत का सानिहा पेश आया, उन्होंने तारीख़ में रक़म करने वाली नज़म तहरीर की 'जगाओ ना बापू को नींद आ गई है', ये नज़म अवाम के जज़बात को छू रही थी और उनके दिलों में तेज़ी से उतरी जा रही थी। जब पण्डित जवाहर लाल नहरू ने ये नज़म सुनी तो बहुत मुतास्सिर हुए और लखनऊ में कांग्रेस के इंतिख़ाबी इजलास में इस नज़म को सुनाने की दरख़ास्त की।
    शमीम करहानी 'अक्स-ए-गिल पर 1964 में उत्तरप्रदेश हुकूमत, 'हरीफ़-ए-नीम-शब' पर 1972 में उत्तरप्रदेश उर्दू अकेडमी, 1972 में ही स्वरूप नारायण उर्दू नज़म ऐवार्ड और 'रंगा के गीत पर हकूमत-ए-हिन्द के अलावा कई एवार्ड से नवाजा गया है। 
    वे ताउम्र उर्दू और उर्दू शायरी की ख़िदमत करते रहे। 1975 में ऐवान ग़ालिब के मुशायरे में शरीक हुए। एक तकरीब के दौरान कैफ़ी आज़मी से गले मिलते हुए अचानक उनकी तबीयत ख़राब हो गई। जिसके बाद क़रीब ही वाके अस्पताल के एमरजेंसी वार्ड में उन्हें ले जाया गया लेकिन वो ठीक नहीं हो सके। ये 19 मार्च का दिन था, जिसने उर्दू दुनिया से एक अज़ीम शायर छीन लिया।
    आज जबकि शमीम करहानी की यौम-ए-पैदाइश के मौके पर हमारा मकसद एक शायर की याद मनाना नहीं बल्कि इस मौक़ा पर हमें उनके ख़्यालात, नज़रियात और जज्बात मुल्क के लिए किस क़दर अहम हैं, इस पर भी गौर करना चाहिए।
    मुल्क एक बार फिर मज़हबी मुनाफ़िरत, समाजी ना हमवारी, तबक़ाती तफ़रीक़ और इज़हार की आज़ादी पर क़दग़न जैसे मसाइल से दो-चार है। ऐसे में शमीम करहानी की ये आवाज़ एक रोशनी की किरण बन कर उभरती है : 

अब भी हम सोचते रह जाएंगे, और कारवां गुज़र जाएगा।

    ये शेअर आज की सियासी बे-हिसी और अवामी ख़ामोशी पर सादिक आ रहा है। जब लोग समाज के मसाइल पर आवाज़ बुलंद नहीं करते, तो जुल्म के क़ाफ़िले बग़ैर रुकावट के आगे बढ़ते जाते हैं। 
    शमीम करहानी की यौम-ए-पैदाइश हमें महज़ माज़ी की यादगार के तौर पर नहीं मनाना चाहिए बल्कि उसे एक फ़िक्री तहरीक का दिन बनाना चाहिए। उनके ख़्यालात को आज की सहाफ़त, तालीम, सियासत और समाजी तहरीकों का हिस्सा बनाने की अहम ज़रूरत है।




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